मैं संजौली में था, ज्ञान
ठकुर के घर... ज्ञान को किसी का फोन आया,
'राजेन टोडरिया का निधन हो गया है' और ज्ञान ने मुझे बताया ? बाहर बर्फीला तूफान चल रहा
था, बड़ी देर से... तूफ़ान ऐसा कि घरों के छतों से, चादरों से ऐसी आवाज़ें आ रही थीं,
मानों थोड़ी देर में कोई भी छत सर पर नहीं रहेगी। ज्ञान ने कहा बाहर तूफान चल
रहा है, टोडरिया (एस. राजेन टोडरिया,
वे अधिकतर इसी नाम से लिखते रहे हैं) के जाने पर मेरे भीतर
भी एक ऐसा ही तूफान चल रहा था, मैं ज्ञान का कम्प्यूटर ठीक करने आया था, लेकिन टोडरिया के निधन की
खबर मिलने पर दिमाग़ ने मानो काम करना छोड़ दिया। मैंने ज्ञान को इस बात का अहसास
नहीं होने दिया,लेकिन भीतर के तूफान को मुश्किल से रोक रखा था, ज्ञान को कह भी रहा था कि
पता तो करो कि क्या हुआ?
लेकिन भला होनी को कब कोई टाल सका है...........!
राजेन
टोडरिया पत्रकार से पहले एक साधारण आदमी थे,
उनके भीतर झाँक-कर देखो तो हरे- भरे पहाड़, कल-कल
बहती नदियाँ, लहलहाते देवदार,
पगडंडियाँ,
जो पहाड़ों के भीतर तक ले जाती थीं, बर्फ
से ढके हिमालय सब संजोकर रखा हुआ दिखता था, वो भी
तरतीब से। बाहर से झाँको तो टोडरिया एक आम
आदमी ही दिखते थे,
बिल्कुल सीधे-सादे,
चेहरे पर सफेद दाढ़ी, जैसे पहाड़ पर मानो बर्फ गिरी हो, लेकिन
जब उनकी कलम चलती तो उनका दूसरा रूप प्रकट होता, एक ऐसे पत्रकार का, जिसने
लिखने से पहले मानो पत्रकारिता की सारी दीक्षाएँ ली हों, लोग
टोडरिया के लेख के लिए अखबार पढ़ते थे,
हिमाचल में '
अमर उजाला'
का रोपण करने वाले
टोडरिया ही थे,
मैं निःसंकोच ऐसा कह सकता हूँ कि उन्होंने अमर उजाला को
हिमाचल में ठीक उसी तरह रोपा,
जिस प्रकार एक बागवान अपने बागीचे में एक सेब के पौधे को
लगाता है। उन्होंने ऐसी ज़मीन तैयार की
जिसके चलते हिमाचल में अमर उजाला ने अपनी ऐसी जड़ें जमाई कि हिमाचल में
पत्रकारिता के तथाकथित 'मठाधीश' धाराशाही हो गए। टोडरिया उस समय हिमाचल आए थे, जब अनेक समाचार पत्रों ने
हिमाचल में पदार्पण किया ही था,और
अपना सर्कुलेशन बढ़ाने के लिए अनेक लोक
लुभावन स्कीमें चल रहीं थीं । इस सब के
बावजूद टोडरिया ने पत्रकारों की ऐसी टीम बनाईकि शिमला के प्रैस रूमों में बैठ कर
लिखी जाने वाली खबरों का चलन बन्द हुआ। अखबार गाँव-गाँव जाने पर मजबूर हुए। ऐसी लहर इससे पहले 'जनसता' ने लाई
थी, लेकिन राजनीतिक मोह में इस समाचार पत्र
ने अपने बने बनाए अस्तित्व को खो दिया.... खैर यह अलग विषय है...।
सन 2000 में मुझ पर काँग़ड़ा में
हुए जानलेवा हमले को लेकर टोडरिया ने अपनी कलम से उन सभी गुंडा तत्वों के खिलाफ जो अभियान छेड़ा, उसे
मैं ही नहीं बल्कि हिमाचल के सारे पत्रकार भला कैसे भूल सकते हैं! उन्होंने अपनी
कलम से सभी गुंडों से घुटने टिकवाए। ( अनिल सोनी भी इस अभियान में बराबर आगे थे।)
टोडरिया की ही कलम थी, कि
उन्होंने मुझ पर हुए हमले को पत्रकारिता पर हुआ हमला माना । धर्मशाला में शिशु
पटियाल, प्रतिभा चौहान सहित अनेक अन्य स्थानीय पत्रकारों की पहल से जब मुझ पर हुए
जानलेवा हमले का छोटा सा धरना हुआ तो उसका सबसे कड़ा
नोटिस बिलासपुर में पत्रकार महासंघ के अध्यक्ष जय कुमार सहित, टोडरिया
ने सबसे अधिक लिया,
( जबकि कुछ तथाकथित पत्रकार उस समय भी राजनितीज्ञों की शरण
में जा बैठे थे ),
परिणाम यह हुआ कि
आज तक हिमाचल में पत्रकारिता की ओर किसी गुंडा तत्व की उंगली तक नहीं उठ पाई। मेरे
ज़हन में आज टोडरिया का वो लेख आज भी है
जो 'तेरा निज़ाम के सिल दे ज़ुबान शायर की'
शीर्षक से छपा था। टोडरिया पत्रकारिता को कमाई का धंधा नहीं
थी, बल्कि वो समाज में जागरूकता लाने और
समाज की सेवा के लिए इसे इस्तेमाल करते थे।
टोडरिया इसलिए भी एक सफल पत्रकार कहे जा सकते हैं, क्योंकि उनके पास अभिव्यक्ति के लिए शब्दों का भण्डार
तो था ही, साथ ही साथ शब्दों की संरचना करने का कौशल भी उन्होंने हासिल किया हुआ था।
इसके पीछे उनका गहन अध्ययन और लोगों के बीच खुद की भागीदारी था। टोडरिया उन
पत्रकारों में नहीं थे जो डैस्क पर बैठ कर लुभावने शब्दों से खबरें बुनते थे, या फिर
चली आ रही रीत का अनुपालन करते हुए किसी प्रेस नोट को उधेड़ कर खबर बुनते थे, बल्कि वो लोगों के बीच जाकर उनके दुःख दर्द से पहले
खुद साझा होते थे।
टोडरिया का अध्ययन उनके
लेखों में उजागर होता था,
टोडरिया जैसे लेख पत्रकारिता में ओम थानवी सरीखे विरले ही
पत्रकार लिख पाते हैं,टोडरिया युवाओं को मंच देने में भी विश्वास रखत थे | जब अमर उजाला हिमाचल में आई तो टोडरिया अपने साथ उत्तराखंड से
पत्रकारों की टीम लेकर आए,
यद्यपि कुछ ऐसे स्थानीय पत्रकारों को भीसाथ रखा जिनमें
उन्हें संभावनाएँ नज़र आईं। उस समय हिमाचल के पत्रकारिता जगत में यह अटकलें आम हो
गई थी कि सारे के सारे यूपी के पत्रकार हिमाचल में लाए गए हैं, वो भला
हिमाचल के बारे में क्या लिख पाएँगे,
लेकिन टोडरिया की टीम ने अपना रंग दिखाया और साथ ही साथ
हिमाचल में स्थानीय पत्रकारों को तराशा और धीरे-धीरे अमर उजाला को स्थानीय
पत्रकारों के हवाले करते चले गए। बाद में जान किन कारणों से वो अमर उजाला से हट गए, लेकिन
जनसत्ता के बाद टोडरिया की टीम ने हिमाचल में पत्रकारिता की जो अलख जगाई, उससे
कई प्रतिद्वन्दी समाचारों के हाथ पाँव फूल गए। ऐसे शख़्स का इस तरह असमय और अकारण
चला जाना बहुत पीड़ा देता है। उनके भीतर एक संवेदनशील साहित्यकार और शब्द साधक छिपा था। टोडरिया एक अच्छे कवि भी
थे। जिसने उनकी कविताएँ पढ़ीं हैं, वो
टोडरिया के भीतर की खलबली को बखूबी जानता है। उनकी कविताएँ भी पहाड़ और आम आदमी के
लिए थीं । उनके भीतर एक नेता भी था,
ऐसा नेता, जो आम आदमी के लिए आंदोलन लड़ता था, चाहे
वो आन्दोलन कलम से हो या फिर खुद सड़कों पर उतरकर। उनके जाने से हिमाचल की
पत्रकारिता और पाठक सबसे अधिक स्तब्ध हैं क्योंकि टोडरिया ने अपनी पत्रकारिता का
शुरुआती समय हिमाचल में ही गुज़ारा । दो दिनों से भारी वर्षा के बाद शिमला में मानो आफत की बर्फ गिर गई है, उनके
जाने के ग़म में मानों शिमला ही नहीं पूरे पहाड़ गमों की बर्फ में जम गए हैं। एक शेर याद आत है ।काश ! राजेन भाई फिनिक्स की तरह फिर से उग आए, फिर कलम उठाए, काश....!!!!!!!!!!! एक शेर याद आता है......
" ऐ अज़ल तुझ से ये क्या नादानी हुई,
फूल वो छीना जिससे गुलशन में वीरानी हुई ।"
अलविदा एस राजेन टोडरिया......
" ऐ अज़ल तुझ से ये क्या नादानी हुई,
फूल वो छीना जिससे गुलशन में वीरानी हुई ।"
अलविदा एस राजेन टोडरिया......
3 टिप्पणियां:
sachchi shraddhanjali.....
Ek Sachchi shraddhanjali...
जीवन में अच्छे लोग कम ही मिल पाते है । और अच्छे लोग हमेशा याद रहते है।
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