गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

गुरुकुल सम्मान समारोह में रजनीश पर पढ़ा गया संक्षिप्त पर्चा


गुरुकुल सम्मान ग्रहण करते पत्रकार रजनीश
                                 रजनीश कब पैदा हुए, क्या खा कर बड़े हुए, स्कूल जाते वक्त उनके पाँव में जूते कौन से थे, उनके बुज़ुर्गों ने उन्हें प्रेरणा दी कि पत्रकार बनो.. आदि आदि!!  इन सभी बातों में अधिक दिलचस्पी न लेते हुए सीधी बात की जाए तो ज़्यादा बेहतर रहेगा, ऐसा मेरा ऐसा मानना है। एक दिन अचानक पता चला कि अखबारों की “ भीड़”  में एक अखबार शामिल हुआ है, जिसका नाम है, ‘हिमाचल दस्तक’ । इसी अखबार में एक पन्ने पर मौलू राम ठाकुर का आलेख पढ़ रहा हूँ। हैरानी तो है। ‘अभिव्यक्ति’  नाम के इस पन्ने पर रजनीश ने मौलू राम पर एक लम्बा लेख लिखा है। मौलूराम को हिमाचल का साहित्यिक गलियारा जानता तो है, लेकिन जिस तरतीब से उनका परिचय करवाया गया है , ऐसा तो मैंने कभी न सुना था और न ही पढ़ने का अवसर मुझे मिला। इस आलेख के बाद मौलू राम के योगदान को लेकर अनेक संस्थाओं की आँखें खुलीं और उन्हें अनेक पुरस्कार भी मिले। ऐसे ही सरोज वशिष्ठ के बारे में भला सबको कहाँ पता था कि वो हिमाचल से ही संबंध रखने वाली एक ऐसी महिला हैं,जिसने खंजर लेकर घूमने वाले मुजरिमों के हाथ में कलम थमा दी और उन्हें लेखक बना दिया। तिहाड़ जैसी जेलों सहित अनेक जेलों में सरोज के इस कार्य को आज भी याद किया जाता है। ‘अभिव्यक्ति’ ने सरोज पर भी लिखा और फलस्वरूप उन्हें भी हाल ही में मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के हाथों सम्मान मिला। अनेक महासवी गीत, झूरी लामण, और नाटी तो आपने सुने होंगे, उस पर आपके कदम भी थिरके होंगे और कई बार आपकी थकान को कुछ लोकगीतों की कुछ मधुर धुनों ने हल्का किया होगा, परन्तु उन धुनों को रचने वाले लायक राम ‘रफीक’ तो आपकी स्मृतियों में संभवतय न भी आते, लेकिन ‘अबिव्यक्ति’ के प्रयासों से यह भी संभव हुआ। सुन्दर लोहिया के योगदान के लिए उनकी पीठ इस कदर कौन थपथपा सकता था। ऐसे और भी नाम है उनकी सूचि लम्बी हो सकती है, रामदयाल नीरज, सत्येन शर्मा, योगेश्वर शर्मा, श्रीनिवास श्रीकांत, हेतराम तनवर और जाने और कितनी ही प्रतिभाओं पर रजनीश की नज़र गई। जब पाठक को मसालेदार सामग्री परोसी जा रही हो, और इसके नशे में पाठकों का एक बड़ा वर्ग उसी प्रकार फंसा हो जैसे ड्रग्ज़ के मोहपाश में यूवा पीढ़ी । बाज़ार के ऐसे घिनौने षड़यंत्रों के बीच रजनीश शर्मा जैसा एक युवा पत्रकार पत्रकारिता की एक ऐसी अलख जगाए, जो ज्ञानरंजन, नामवर सिंह से होती हुई मुबई में अनूप सेठी तक पहुँचे तो इसे एक उपलब्धि ही माना जा सकता है ।  ‘अभिव्यक्ति’ कॉलम से रजनीश ने न केवल महत्वपूर्ण दस्तावेज़ दिए हैं, बल्कि उम्र के अंतिम पढ़ाव पर बैठे अनेक वयोवृदध साहित्यकारों को अपना ये इंटर्व्यू पढ़ कर ज़ाहिर है किसी बड़े पुरस्कार की अनुभूति कराई है ।  बाज़ार की तरफ भागती पत्रकारिता के चलते हुए भी रजनीश सृजन की तरफ भागते हैं, तो उनके इस प्रयास को  सम्मानित करने की सोच रखकर ‘गुरूकुल’ ने भी एक मील पत्थर साबित किया है। रजनीश के इस कार्य को सम्मान दिया जाना, उन सभी पत्रकारों और नुमाईंदो की नींद भी खोलेगा, जिनका ध्यान अब तक रंगीन खबरों और मंत्री जी के शाही पत्रकार सम्मेलन से आगे नहीं पहुँचता है। यह जानकर हैरानी होती है कि रजनीश ने ‘अभिव्यक्ति’ के अंतर्गत जितने भी इंटर्व्यू अब तक किए हैं, सभी अपने व्यक्तिगत खर्चे पर किए हैं और अखबार से किसी प्रकार के यात्रा या अन्य भत्ते की माँग नहीं की है। उनकी इसी सोच और जज़्बे को सलाम करते हुए मुझे पत्रकारिता के उस दौर की याद आती है,  जब एक ही अखबार हिमाचल में होती थी, और एक अखबार को घंटों पढ़ने के बाद भी इसका ज़ायका कई रोज़ रहता था। अखबार केवल खबरें लेकर नहीं आती थी, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य आदि सहित्य की अनेक विधाएँ अखबार का हिसा हुआ करती थीं। आज सोमवार को फलाँ लेख आएगा और कल “ठगड़े का रगड़ा” लोट-पोट करने वाली भाषा में व्यवस्था और राजनीति की खबर लेगा। या फिर किसी ‘लपोग़ड़ की डायरी” आएगी और मनोरंजन करते हुए, बहुत कुछ ऐसा सुना जाएगी, जिसमें बहुत ऊर्जा तो होगी ही, एक संदेश भी होगा और प्रोत्साहन भी।  “ पागल की डायरी’ में बहुत से ऐसी बातें होंगी जो एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में एक अनोखा उल्लास भर देगी। शांता कुमार के लेख पढने को मिलेंगे और ओम थानवी हिमाचल में एक हलचल पैदा करेंगे।  इस दौर में इश्तहार अखबार से कोसों दूर रहा करते थे। हिमाचल के किसी भी कोने में एक सी खबरें मिलती। एक पत्रकार के पास अनेक सामग्री हुआ करती थी, हिमाचल प्रदेश क्षेत्रीय पत्रकारिता से कोसों दूर था । अखबार बसों की छतों पर सीधी सादी पोशाक में  हमारे घर आती थी और पढ़नीय सामग्री के साथ हमारा मनोरंजन और ज्ञान वर्द्धन करती थी ।  उस समय पत्रकार नाम के प्राणी की खबर तो मुझ जैसे गंवार  को  शायद ही रही होगी।  शहरों में तो तब पत्रकार किसी देवता से कम कहाँ हुआ करते थे ।        
 आज कम्यूटर क्राति ने दर्जनों अखबार हमारे सामने रख दिये और उनका पहनावा भी रंग-बिरंगा और पन्ने भी, दर्जनों पत्रकार, लेकिन अखबारों से खबरें ग़ायब है, कुल्लू को ये पता नहीं कि शिमला कैसा है और शिमला ने धर्मशाला का नाम कई दिनों से नहीं सुना। बिलासपुर अपने साथ वाले हमीरपुर से पीठ लगाए हुए भी हमीरपुर की खबर नहीं रखता। खबरों की इस  गुमशुदगी में एक चीज़ हर जगह एक सी नज़र आती है, उसे हम इश्तहार के नाम से जानते हैं। एक मेरे पत्रकार मित्र, जो अब एक बडे अखबार में उच्च पद पर हैं,  जब कभी मेरे साथ एक आम रिपोर्टर हुआ करते थे, आज उनका तो ये मत है कि अखबार खबरों के लिए नहीं इशतारों के लिए निकाली जाती है और जो जगह उसमें बच जाए उसकी खानापूर्ति खबर से की जानी चाहिए। ऐसे माहौल में पत्रकारिता में साहित्य को स्थान और सम्मान मिलना किसी विचित्र घटना जैसा तो लगेगा ही। इसी विचित्र घटना क्रम में जहाँ तथाकथित पत्रकारों का हुजूम दिखाई देता है, उसमें रजनीश शर्मा की चमक अलग ही है और उन जैसे सृजनशील पत्रकारों में ही पत्रकारिता में संवेदना की संभावनाओं को बल मिलता है ।
आज हम रजनीश को साहित्यिक पत्रकारिता के लिए सम्मानित कर रहे हैं, लेकिन आपके साथ यह साझा करना चाहूँगा कि इससे पहले रजनीश ने राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में भी पत्रकारिता के माध्यम से दखल दिया और उसका प्रभावशाली असर देखने को मिला है। रजनीश ने अनेक बेसहारा लोगों को अखबारों के माध्यम से सहारा देकर लोगों की जहाँ जानें बचाईँ हैं वहीं भ्रष्टाचार से भी उनकी कलम ने कई बार दो-दो हाथ किए हैं। रजनीश की कलम कहीं अव्यवस्था से लड़ती नज़र आती है, तो कहीं भ्रष्टाचार पर प्रहार करती है, वहीं इस युवा की कलम ने बेसहारों को सहारा भी दिया है। रजनीश का यह सफर जारी है... पत्रकारिता रजनीश के लिए व्यवसाय से अधिक जुनून है और रजनीश इसे एक ऐसे हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं जो कभी किसी का सहारा होता है तो अव्यवस्था के खिलाफ लड़ने वाला एक सशक्त हथियार । रजनीश पत्रकारिता की नदी में एक ऐसे पत्थर की तरह है जो धारा के विरुद्ध अपना पैर जमाए खड़ा है । मेरे प्रिय कवि महेश चन्द पुनेठा की ये कविता मानो रजनीश पर ही लिखी गई हो :-
अनेक पत्थर
कुछ छोटे-कुछ बड़े
लुढ़क कर आए इस नदी में
कुछ धारा के साथ बह गए
न जाने कहां चले गए
कुछ धारा से पार न पा सके
किनारों में इधर-उधर बिखर गए
कुछ धारा में डूबकर
अपने में ही खो गए
और कुछ धारा के विरुद्ध
पैर जमा कर खड़े हो गए
वही पत्थर पैदा करते रहे
नदी में हलचल
और नित नई ताज़गी
वही बचा सके अपना अस्तित्व
और उन्होंने ही पाई है सुन्दरता।  
                        

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

कुल्लू में गुरुकुल सम्मान समारोह में सम्मानित हुई विभूतियाँ,

गुरू कुल सम्मान से सम्मानित विभूतियाँ
कवि अग्निशेखर अपने विचार रखते हुए
गुरूकुल बहुमुखी शिक्षा संस्था कुल्लू द्वारा 14 अप्रैल को आयोजित सम्मान, लोकार्पण और कवि गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी में अनेक कवियों ने भाग लिया और विभिन्न क्षेत्रों के लिए सात साहित्यिक विभूतियों को सम्मानित किया गया। इन विभूतियों में लोकगीतों के लिए लायक राम रफीक, कहानी लेखन के लिए हंसराज भारती, लोकप्रिय कवि के लिए तेजराम शर्मा अजेय को उनके नव प्रकाशित काव्य संग्रह “इन सपनों को कौन गाएगा”  कृष्ण चन्द महादेविया को लोक संस्कृति के क्षेत्र में अहम योगदान के लिए के समानित किया गया| कुल्लू से प्रकाशित पत्रिका 'हिमतरु' के प्रकाशन के लिए कृष्ण श्रीमान को सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश से प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचार पत्र 'हिमाचल दस्तक' की खूब सराहना हुई। यह हिमाचल का एकमात्र ऐसा दैनिक समाचार पत्र है जिसमें 'अभिव्यक्ति' नामक पन्ने पर एक विशिष्ट साहित्यिक व्यक्तित्व पर विशेष इंटरव्यू रविवार को प्रकाशित किया जाता है। इस कार्य को लेकर समाचार पत्र के सम्पादक हेमंत कुमार 'अभिव्यक्ति' परिशिष्ट के सूत्रधार, युवा पत्रकार रजनीश को भी सम्मानित किया गया। 
मुख्य अतिथि देवेन्द्र गुप्ता साहित्यकारों को सम्बोधित करते हुए
                पुस्तकों के लोकार्पण में तेज राम शर्मा के ताज़ा काव्य संग्रह “ मोम के पिघलते बोल”, संजू पॉल की पुस्तक “स्माईल दाई सॉरोज़”, ईशिता गिरीश की ‘सबसे अच्छा बच्चा’ कृष्ण चन्द्र महादेविया की “मण्डी जनपद के लोकनाटय” सतीश रत्न का काव्य संग्रह ‘सुबह ज़रूर आएगी’, तथा राज्य वद्धन द्वारा संपादित काव्य संकलन ‘स्वर एकादश’ का लोकार्पण किया गया। इसके अतिरिक्त एक वीडियो सीडी का लोकार्पण भी इस आयोजन में किया गया। तेजराम शर्मा की पुस्तक पर  ने पर्चा पढ़ा, ईशिता की पुस्तक पर सतीश चन्द्र कौड़ा,  अजेय के काव्य संग्रह पर निरंजन देव शर्मा, मंडी जनपद के लोक नाटय पर गंगा राम राजी, सतीश रत्न के काव्य संग्रह और राज्य वर्द्धन द्वारा संपादित काव्य संग्रह  पर प्रकाश बादल ने पर्चा पढ़ा ।  कार्यक्रम के मुख्य अतिथि भाषा एवम संस्कृति विभाग के निदेशक देवेन्द्र गुप्ता थे और कार्यक्रम की अध्यक्षता  प्रसिद्ध कवि अग्निशेखर ने की।        
कविता पाठ करते कवि
दो सत्रों में निर्धारित किए गए इस आयोजन को एक सत्र में निपटाने की जब मंच से घोषणा हुई, तो बहुत से साहित्यिक मित्र मन मसोस कर रह गए। पता चला कि इस आयोजन को समेटने के पीछे उसी स्थान पर मुख्यमंत्री के नागरिक सम्मान के लिए चुना गया था। इसी के चलते साहित्यकारों को यह अल्तीमेटम दिया गया कि हॉल को जितना जल्दी हो सके खाली कर दिया जाए। इस तरह एक और सहित्यिक आयोजन की बलि चढ़ने ही वाली थी कि आयोजन के मुख्य संयोजक गणेश भारद्वाज ‘गनी’ के उत्साह का साथ साहित्यकारों और श्रोताओं
कवि सम्मेलन में प्रतिभागी कवि 
और उपस्थित साहित्यकारों ने नहीं छोड़ा। और खाली पेट सांय 5 बजे तक डटे रहे। इस आयोजन के पीछे गुरूकुल संस्था की कल्पना को साकार करने में जुटे गणेश भारद्वाज के प्रयास जहाँ सराहनीय थे वहीं इसकी बेहतर रूपरेखा न होने के कारण आयोजन  में अनेक खाभियां भी झलकीं, ज़ाहिर है आगामी गुरूकुल सम्मान के लिए इस आयोजन से सबक लिया जा सकेगा। विभिन्न विभूतियों को सम्मानित करने का जज़्बा लेकिन बेहद सराहनीय कदम है।
                       
स्कूली बच्चे कविता पाठ करते हुए
कवि सम्मेलन ध्यान खींचने वाला था। कवि सम्मेलन में रंग जमना तब शुरू हुआ जब यादवेन्द्र शर्मा ने अपनी कविता ‘पहाड़ी टोपी’ सुनाई। टोपी के इतिहास और राजनीतिक गलियारों में बदलते टोपी के रंग ऐसे बिखरे कि भाषा विभाग के निदेशक इस बीच कवि गोष्ठी से उठ कर ही चले गए । कवि सम्मेलन निरंतर चलता रहा और मोहन साहिल की ‘ गुच्छी’ कविता ने समां बांधा । कुल राजीव पंत की कविताएँ भी खूब जमीं । इसके अतिरिक्त तेज राम शर्मा ने भी कविता पाठकर ध्यान आकर्षित किया। अग्निशेखर को जिस तरह से सुना जाना चाहिए था सुना नहीं गया, लेकिन उन्होंने कुछ कविताएँ ज़रूर पढ़ी। इसके अतिरिक्त सतीश रत्न, निरंजनदेव,ईशिता, कृश्न चन्द महादेविया, शेर सिंग मेरुपा, सहित अनेक कवियों ने कविताएँ पढ़ीं। कुछ स्कूली बच्चों की कविताएँ भी ध्यान आकर्षित करने वाली थी। पूरे कार्यक्रम को नोट नहीं कर पाया इसके लिए क्षमा। लायक राम रफीक और अजेय सम्मान प्राप्त करने स्वयं उपस्थित नहीं हो पाए। अजेय के पिता ने अजेय का पुरस्कार प्राप्त किया और भाव पूर्ण संबोधन दिया।

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

पत्रकार राजेन टोडरिया का निधन अपूर्णीय क्षति




मैं संजौली में था, ज्ञान ठकुर के घर... ज्ञान को किसी का फोन आया, 'राजेन टोडरिया का निधन हो गया है'  और ज्ञान ने मुझे बताया ? बाहर बर्फीला तूफान चल रहा था, बड़ी देर से... तूफ़ान ऐसा कि घरों के छतों से,  चादरों से ऐसी आवाज़ें आ रही थीं, मानों थोड़ी देर में कोई भी छत  सर पर नहीं रहेगी। ज्ञान ने कहा बाहर तूफान चल रहा है, टोडरिया (एस. राजेन टोडरिया, वे अधिकतर इसी नाम से लिखते रहे हैं) के जाने पर मेरे भीतर भी एक ऐसा  ही तूफान चल रहा था, मैं  ज्ञान का कम्प्यूटर ठीक  करने आया था, लेकिन टोडरिया के निधन की खबर मिलने पर दिमाग़ ने मानो काम करना छोड़ दिया। मैंने ज्ञान को इस बात का अहसास नहीं होने दिया,लेकिन भीतर के तूफान को मुश्किल से रोक रखा था, ज्ञान को कह भी रहा था कि पता तो करो कि क्या हुआ? लेकिन भला होनी को कब कोई टाल सका है...........!
 राजेन टोडरिया पत्रकार से पहले एक साधारण आदमी थे, उनके भीतर झाँक-कर देखो तो हरे- भरे पहाड़, कल-कल बहती नदियाँ, लहलहाते देवदार, पगडंडियाँ, जो पहाड़ों के भीतर तक ले जाती थीं, बर्फ से ढके हिमालय सब संजोकर रखा हुआ  दिखता था, वो भी तरतीब से।  बाहर से झाँको तो टोडरिया एक आम आदमी ही दिखते थे, बिल्कुल सीधे-सादे, चेहरे पर सफेद दाढ़ी,  जैसे पहाड़ पर मानो बर्फ गिरी हो, लेकिन जब उनकी कलम चलती तो उनका दूसरा रूप प्रकट होता, एक ऐसे पत्रकार का, जिसने लिखने से पहले मानो पत्रकारिता की सारी दीक्षाएँ ली हों, लोग टोडरिया के लेख के लिए अखबार पढ़ते थे, हिमाचल में ' अमर उजाला' का  रोपण करने वाले टोडरिया ही थे, मैं निःसंकोच ऐसा कह सकता हूँ कि उन्होंने अमर उजाला को हिमाचल में ठीक उसी तरह रोपा, जिस प्रकार एक बागवान अपने बागीचे में एक सेब के पौधे को लगाता है। उन्होंने ऐसी ज़मीन तैयार की  जिसके चलते हिमाचल में अमर उजाला ने अपनी ऐसी जड़ें जमाई कि हिमाचल में पत्रकारिता  के तथाकथित  'मठाधीश' धाराशाही हो गए। टोडरिया उस समय हिमाचल आए थे, जब अनेक समाचार पत्रों ने हिमाचल में पदार्पण किया  ही था,और अपना सर्कुलेशन बढ़ाने के लिए अनेक  लोक लुभावन    स्कीमें चल रहीं थीं । इस सब के बावजूद टोडरिया ने पत्रकारों की ऐसी टीम बनाईकि शिमला के प्रैस रूमों में बैठ कर लिखी जाने वाली खबरों का चलन बन्द हुआ। अखबार गाँव-गाँव जाने पर  मजबूर हुए। ऐसी लहर इससे पहले 'जनसता' ने लाई थी, लेकिन राजनीतिक मोह में इस  समाचार पत्र ने अपने बने बनाए अस्तित्व को खो दिया.... खैर यह अलग विषय है...।
सन 2000 में मुझ पर काँग़ड़ा में हुए जानलेवा हमले को लेकर टोडरिया ने अपनी कलम से उन सभी गुंडा तत्वों  के खिलाफ जो अभियान छेड़ा, उसे मैं ही नहीं बल्कि हिमाचल के सारे पत्रकार भला कैसे भूल सकते हैं! उन्होंने अपनी कलम से सभी गुंडों से घुटने टिकवाए। ( अनिल सोनी भी इस अभियान में बराबर आगे थे।)
टोडरिया की ही कलम थी, कि उन्होंने मुझ पर हुए हमले को पत्रकारिता पर हुआ हमला माना । धर्मशाला में शिशु पटियाल, प्रतिभा चौहान सहित अनेक अन्य स्थानीय पत्रकारों की पहल से जब मुझ पर हुए जानलेवा हमले का छोटा सा धरना हुआ तो उसका सबसे कड़ा नोटिस बिलासपुर में पत्रकार महासंघ के अध्यक्ष जय कुमार सहित, टोडरिया ने सबसे अधिक लिया, ( जबकि कुछ तथाकथित पत्रकार उस समय भी राजनितीज्ञों की शरण में जा बैठे थे ),  परिणाम यह हुआ कि आज तक हिमाचल में पत्रकारिता की ओर किसी गुंडा तत्व की उंगली तक नहीं उठ पाई। मेरे ज़हन में आज टोडरिया का वो  लेख आज भी है जो  'तेरा निज़ाम के सिल दे ज़ुबान शायर की' शीर्षक से छपा था। टोडरिया पत्रकारिता को कमाई का धंधा नहीं थी, बल्कि  वो समाज में जागरूकता लाने और समाज की सेवा के लिए इसे इस्तेमाल करते थे।  टोडरिया इसलिए भी एक सफल पत्रकार कहे जा सकते हैं, क्योंकि  उनके पास अभिव्यक्ति के लिए शब्दों का भण्डार तो था ही, साथ ही साथ शब्दों की संरचना करने का कौशल भी उन्होंने हासिल किया हुआ था। इसके पीछे उनका गहन अध्ययन और लोगों के बीच खुद की भागीदारी था। टोडरिया उन पत्रकारों में नहीं थे जो डैस्क पर बैठ कर लुभावने शब्दों से खबरें बुनते थे, या फिर चली आ रही रीत का अनुपालन करते हुए किसी प्रेस नोट को उधेड़ कर खबर बुनते थे, बल्कि  वो लोगों के बीच जाकर उनके दुःख दर्द से पहले खुद साझा होते थे।   
                                     टोडरिया का अध्ययन उनके लेखों में उजागर होता था, टोडरिया जैसे लेख पत्रकारिता में ओम थानवी सरीखे विरले ही पत्रकार लिख पाते हैं,टोडरिया युवाओं को मंच देने में भी विश्वास रखत थे | जब अमर उजाला हिमाचल में आई तो टोडरिया अपने साथ उत्तराखंड से पत्रकारों की टीम लेकर आए, यद्यपि कुछ ऐसे स्थानीय पत्रकारों को भीसाथ रखा जिनमें उन्हें संभावनाएँ नज़र आईं। उस समय हिमाचल के पत्रकारिता जगत में यह अटकलें आम हो गई थी कि सारे के सारे यूपी के पत्रकार हिमाचल में लाए गए हैं, वो भला हिमाचल के बारे में क्या लिख पाएँगे, लेकिन टोडरिया की टीम ने अपना रंग दिखाया और साथ ही साथ हिमाचल में स्थानीय पत्रकारों को तराशा और धीरे-धीरे अमर उजाला को स्थानीय पत्रकारों के हवाले करते चले गए। बाद में जान किन कारणों से वो अमर उजाला से हट गए, लेकिन जनसत्ता के बाद टोडरिया की टीम ने हिमाचल में पत्रकारिता की जो अलख जगाई, उससे कई प्रतिद्वन्दी समाचारों के हाथ पाँव फूल गए। ऐसे शख़्स का इस तरह असमय और अकारण चला जाना बहुत पीड़ा  देता है।  उनके भीतर एक संवेदनशील साहित्यकार और शब्द साधक छिपा था। टोडरिया एक अच्छे कवि भी थे।    जिसने उनकी कविताएँ पढ़ीं हैं, वो टोडरिया के भीतर की खलबली को बखूबी जानता है। उनकी कविताएँ भी पहाड़ और आम आदमी के लिए थीं । उनके भीतर एक नेता भी था, ऐसा नेता, जो आम आदमी के लिए आंदोलन लड़ता था, चाहे वो आन्दोलन कलम से हो या फिर खुद सड़कों पर उतरकर। उनके जाने से हिमाचल की पत्रकारिता और पाठक सबसे अधिक स्तब्ध हैं क्योंकि टोडरिया ने अपनी पत्रकारिता का शुरुआती समय हिमाचल में ही गुज़ारा । दो दिनों से भारी वर्षा के बाद शिमला में  मानो आफत की बर्फ गिर गई है, उनके जाने के ग़म में मानों शिमला ही नहीं पूरे पहाड़ गमों की बर्फ में जम गए हैं। एक शेर याद आत है ।काश ! राजेन भाई फिनिक्स की तरह फिर से उग आए, फिर कलम उठाए, काश....!!!!!!!!!!!  एक शेर याद आता है...... 
 
                                   " ऐ अज़ल तुझ से ये क्या नादानी हुई, 
                                   फूल वो छीना जिससे गुलशन में वीरानी हुई ।" 
                                                                    
                                                                             अलविदा एस राजेन टोडरिया......  

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

अनुराग के प्रयासों से पूरा हुआ धर्मशाला स्टेडियम का सपना


अनुराग ठाकुर
27 जनवरी 2013 आखिर एक ऐतिहासिक दिन बन ही गया। यह हिमाचल के एक मात्र अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम की सूचि में आ गया। भारत और इंग्लैंड के बीच हुए एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय मैच ने इस ऐतिहासिक दिन पर मोहार लगा दी। मैच के दौरान धर्मशाला स्थित इस स्टेडियम की सुन्दरता की प्रशंसा हर कोई कर रहा था। हज़ारों लोगों की तादाद में खचाखच भरे स्टेडियम में तालियों की गड़गड़ाहट और जश्न भरा शोर-शराबा था। इसी ऐतिहासिक दिन की एक और रोमांचक कड़ी ये थी कि हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह और पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल एक साथ इस जश्न में शरीक थे ।  अब धर्मशाला तिब्बत की निर्वासित सरकार की वजह से नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम की वजह से जाना जाने लगा है । 
                
धर्मशाला क्रिकेट स्टेडिम का मनमोहक दृष्य 

धर्मशाला में क्रिकेट स्टेडियम बनाने का सपना देखने वाले पहले व्यक्ति हैं अनुराग ठाकुर। कहावत भी है कि सपने देखना आम आदमी के बस की बात नहीं, ( बात उस सपने की हो रही है जो खुली आँख से देखा जाता है), और जो सपना देखता है, वही उसे पूरा करने की सोचता भी है। उसका प्रमाण हमारे समक्ष धर्मशाला में बना क्रिकेट स्टेडियम है । 17 जववरी 2013 को जब स्टेडियम खचाखच भरा हुआ था तो  लोग उल्लास से भरे हुए मैच का आनन्द ले रहे थे और मेरा ध्यान इस  उल्लास के लिए सपना देखने वाले उस युवा पर था जो इस भीड़ का एक हिस्सा मात्र था, एक कोने में बैठा हुआ, चाय की चुस्कियां लेता वह युवा अनुराग ठाकुर । ज़ाहिर है इस सपने को पूरा करने में हिमाचल सरकार, हिमाचल क्रिकेट एसोसिएशन के अन्य सदस्य और अनेक व्यक्ति होंगे जो इसमें सहभागी बने, लेकिन सपना ही न होता तो किसे साकार करते ?  इसीलिए बहुत से विद्वान सपना देखने पर ज़ोर देते हैं, परंतु सपना देखना आम आदमी के बस की बात भी नहीं।
धर्मशाला स्टेडियम में विजेता भारतीय टीम का फ़ोटो

हिमाचल प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के इतिहास पर जाएँ तो इसका गठन वर्ष 1960 में ही हो गया था और और सन 1984 में एसोसिएशन को बीसीसीआई की सदस्यता भी मिल गई थी, लेकिन एसोसिएशन काफी शिथिल अवस्था में थी। 2 जुलाई 2000 को जैसे ही एसोसिएशन की अध्यक्षता के लिए अनुराग ठाकुर को चुना गया, एसोसिएशन में एक ऊर्जा का संचार हुआ, अनुराग ने अध्यक्ष पद पर विराजमान होते ही हिमाचल में क्रिकेट की संभावनाएँ तलाशने का बीड़ा उठा लिया । 
पहले अंतर्राष्ट्रीय मैच(भारत और इंग्लैंड )में पुरस्कार वितरित करते हिमाचल के मुख्यमंत्री व अन्य

यही वक्त था कि अनुराग ने हिमाचल क्रिकेट स्टेडियम  स्थापित करने की सोची और हिमाचल के खेल प्रेमियों ने भी उनका भरसक साथ दिया। मार्च 2002 में 16 एकड जमीन पर स्टेडियम बनाने के लिए हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने जब स्वीकृति दी और ज़मीन के काग़ज़ात हिमाचल प्रदेश क्रिकेटर एसोसिएशन के प्रधान को  सौंपे गए तो अनुराग तभी मान गए थे कि स्टेडियम का निर्माण अब और भी आसान हो गया था, लेकिन इसे पूरा करना कितना मुश्किल हो सकता था, ये तो आसानी से ही महसूस किया जा सकता है, लेकिन अनुराग की टीम ने धर्मशाला स्टेडियम को बनाकर क्रिकेट के प्रति अपनी तत्परता और विषेष रुचि का प्रमाण दिया है। बताया जाता है कि स्टेडियम निर्माण में 60 करोड़ की लागत आई, फलस्वरूप यह हिमाचल का अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस एक आकर्षक स्टेडियम बन गया। लगभग  25000 दर्शकों के बैठने  की क्षमता वाले, धौलाधार की  चोटियों से घिरे इस स्टेडियम की सुन्दरता देखते ही बनती है। 

धर्मशाला स्टेडियम की ताज़ा फोटो

हिमाचल प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन जहाँ क्रिकेट प्रेमियों में उत्साह का कारण बनी हुई है, वहीं अनुराग ठाकुर की अध्यक्षता में यह एसोसिएशन एक के बाद एक मील पत्त्थर  स्थापित कर रही है।  अनुराग हिमाचल प्रदेश के नादौन और बिलासपुर में भी ऐसा ही एक  स्टेडियम स्थापित करना चाहते हैं, जिसके लिए लगभग पाँच करोड़ रुपयों की ज़रूरत है। इंग्लैंड और भारत के बीच धर्मशाला में हुआ प्रथम अंतर्राष्ट्रीय मैच कई मानों मे ऐतिहासिक रहा। अनुराग ने इस दिन भी बिना किसी राजनीतिक दृष्टि से हिमाचल के मुख्य मंत्री वीरभद्र सिंह और पूर्व मुख्य मंत्री प्रेमकुमार धूमल को एक मंच पर ला खड़ा किया। अनुराग जैसे युवाओं की हिमाचल को आवश्यकताहै । हिमाचल में क्रिकेट का भविष्य अनुराग की आँखों में दिखाई दने लगा है। अनुराग के इस प्रशंसनीय कार्य के लिए उनकी पीठ थपथपाना यद्यपि एक छोटा सा प्रोत्साहन होगा, लेकिन उनके लिए  यह दुआ भी की जा सकती है कि ऐसे हसीन सपने देखने का उनका दृष्टिकोण कायम रहे और उनका जीवन कामयाबी की सीढ़ियाँ चढ़ता रहे। इस लेख में पाठक अपनी राय जोड़ेंगे तो ज़ाहिर है कि अनुराग के लिए हिमाचली लोगों की एक शाबाशी तो होगी ही, साथ ही साथ उन तक यह संदेश भी जाएगा कि सब उनके सफल जीवन की कामना कर रहे हैं और सब प्रदेशवासी प्रदेशहित के लिए कार्य कर रहे हर व्यक्ति की पीठ थपथपाना जानते हैं। शाबाश अनुराग।
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