बुधवार, 10 दिसंबर 2008

ऐसा नहीं कि ज़िन्दा.............

ऐसा नहीं के ज़िंदा जंगल नहीं है।

गांव के नसीब बस पीपल नहीं है।


ये आंदोलन नेताओं के पास हैं गिरवी,

दाल रोटी के मसलों का इनमें हल नहीं है।


चील, गिद्ध, कव्वे भी अब गीत गाते हैं,

मैं भी हूं शोक में, अकेली कोयल नहीं है।


ज़रूरी नहीं के मकसद हो उसका हरियाली,

विश्वासपात्रों में मानसून का बादल नहीं है।


उसके सीने से गुज़री तो आह निकल गई,

जो मेरी ग़ज़ल को कहता रहा,ग़ज़ल नहीं है।


जिनका पसीना उगलता है बिजलियां,

रौशनी का उन्हें आंचल नहीं है।

3 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

उसके सीने से गुज़री तो आह निकल गई,
जो मेरी ग़ज़ल को कहता रहा,ग़ज़ल नहीं है।

बढिया लिखा है।

राज भाटिय़ा ने कहा…

ये आंदोलन नेताओं के पास हैं गिरवी,

दाल रोटी के मसलों का इनमें हल नहीं है।

बहुत खुब कहा आप ने.
धन्यवाद

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

जिनका पसीना उगलता है बिजलियां,
रौशनी का उन्हें आंचल नहीं है।

बहुत लाजवाब भाई प्रकाश जी !

रामराम !

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